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यह न पूछो ,जिन्दगी को किस तरह से ,जीया था मैने ,
ज़माने की जुल्मों - सितम , खामोशी से , सहा था मैने .
हर ज़ख्म , हर दर्द दिये थे , ज़माने वालों ने मुझे ,
जिनके ज़ख्मों पर,प्यार से मरहम,लगाया था मैने .
कतई ईल्म न था , दुनिया वाले इतने , खुदगर्ज़ होंगे ,
जबकी उनके गमों को,अपना समझकर,उठाया था मैने .
जीते -जी हरवक्त ,खोदते ही रहें , वही कब्र मेरा ,
जिन्हे जीने का , सही अंदाज , सिखाया था मैने .
किसी बोझ की तरह ,उठाए जा रहें हैं ,ज़नाज़ा मेरा ,
जिनके दर्द से ,तड़पते काँधों को , सहलाया था मैने .
मालूम हैं , जल्द ही मिट्टी तले , दफ़ना जाएंगे मुझे ,
कुछ पल के लिये सही,लोगों को,अपना बनाया था मैने .
रूह तो फ़ना हो चुकी,अब जिस्म भी,अलविदा "आनंद",
फक्र हैं ,जिन्दगी को सच की राह में , बिताया था मैने .
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